अनुक्रणिका 12, मनुष्य जीवन का धर्म / जीवन की अनमोल विचार
12.मनुष्य जीवन का धर्म
मनुष्य जीवन में कर्म ओर भक्ति के माध्यम से अपने कर्तव्य को निभाते है। जब मनुष्य अपने कर्तव्य को जानते है ओर जीवन में कार्य करता रहता है। तब मनुष्य जीवन में धर्म करता रहता है। सब को अच्छा व्यवहार करना , स्वभाव ओर नम्र करना , करुणा से भरा जीवन जीता। सब के प्रति प्रेम भाव होना। प्रत्येक कार्य को अपना कर्तव्य समझ के कार्य करना । दूसरों को खुशी देता हो। किसी भी व्यक्ति से निंदा ना हो , नफरत ओर वेर की जगह ना हो।
मनुष्य का जीवन दया , करूणा, प्रेम से भरा हो चाहिए। दूसरे मनुष्य प्रति प्रेम भाव हो । सब को एक मान दे। सब को सामान माने । मनुष्य प्रत्येक मनुष्य को एक ही पिता के संतान माने। ज्ञानी महापुरुष जानते है। जब मनुष्य को दुःख , पीड़ा दिया जाए तो, मनुष्य को दुःख नहीं । केवल, आत्मा को पीड़ा दिया जाता है।जब मनुष्य को दुःख पीड़ा दिया जाता है। तब आत्मा को पीड़ा होती हैं।जब आत्मा को पीड़ा होती है। तो, वास्तव मैं परमात्मा को दुःख, पीड़ा होती है।
ज्ञानी महापुरुष जानते है
अगर जिभा कट जाएतो, समग्र शरीर को पीड़ा होती है।
उसी तरह , संसार में एक भी मनुष्य पीड़ित है।
तब तक वास्तव में, एक भी मनुष्य का सुख सपूर्ण नहीं। यह, देखकर मनुष्य के भीतर करुणा भाग जग जाए । तब वास्तव में उसे धर्म कहते है।
जिस मार्ग पे चल के आत्मा को जान लेता है। आत्मा के रूप में संयम को जान लेता है। आत्मा के रूप में परमात्मा को जान लेता है। परमात्मा के अंश को जान लेता है। संयम एक आत्मा है। एक परमात्मा का अंश , आत्मा है। परमात्मा को आत्मा के रूप में देखता है। स्मरण होता है, यह परमात्मा ही संसार है।
यह ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति होती है।
तब उने धर्म कहा जाता है।
-picsay%20(10).jpeg)
0 Comments